मां से बहुत प्यार करते थे अशफाक उल्ला खां, लेकिन ननिहाल पर थे शर्मिंदा

 
मां से बहुत प्यार करते थे अशफाक उल्ला खां, लेकिन ननिहाल पर थे शर्मिंदा

नई दिल्ली: अशफाक उल्ला खां (Ashfaqulla Khan) के बारे में जब भी कहीं लिखा जाता है या सुना जाता है, तो एक मुस्लिम होते हुए भी राम प्रसाद बिस्मिल (Ram Prasad Bismil) जैसे आर्यसमाजी से उनकी दोस्ती और काकोरी केस (Kakori Case) में दोनों की फांसी के इर्द गिर्द ही लिखा जाता है. लेकिन आज उनकी जयंती (Anniversary) के मौके पर आप कुछ नया जानने वाले हैं. अशफाक उल्ला खां की मां का नाम था मजहर-उल-निशा था, वो एक बड़े खानदान की बेटी थीं. अशफाक की मां एक रौबदार महिला थीं, पिता अपना सारे वेतन और बाद में पेशन मां के हाथ में रख दिया करते थे, गांव से आने वाली आय भी मां के हाथ में ही जाती थी.

घर में पूरा दखल रखने वाली मां, मोहल्ले की विधवाओं को दोनों वक्त का खाना देती थीं. वहीं गरीब बच्चियों की शादी में काफी आर्थिक मदद करती थीं. मोहल्ले और पड़ोस के लोग भी शादी या रिश्ता करने से पहले उनसे ही राय लेते थे. अशफाक के पिता शफीक उल्ला खां अंग्रेजी पुलिस में सब-इंस्पेक्टर थे. अशफाक से बड़े तीन भाई और एक बहन थीं, इसलिए वो ज्यादा दिन तक पिता को ड्यूटी पर जाता नहीं देख पाए, क्योंकि वो जल्द रिटायर होकर पेंशन लेने लगे थे.

सबसे छोटे होने की वजह से वो अपनी मां के सबसे करीब थे, उनकी मां की सुंदरता और व्यक्तित्व की काफी चर्चा होती थी. लेकिन एक दिन उन्हें लखनऊ सेंट्रल जेल की लाइब्रेरी में एक किताब मिली और जिसे पढ़कर वो काफी शर्मिंदा हो गए, कुछ मिलने वालों से भी उन्हे मां के खानदान के बारे में जानकारी मिली थी. फांसी की सजा का इंतजार करते करते उन्होंने काफी कुछ लिखना पढ़ना शुरू कर दिया था.

ननिहाल का जिक्र करते वक्त अशफाक उल्ला खां थोड़े शर्मिन्दा हो गए, वो ननिहाल के बारे में बताते हुए लिखते हैं, कि 'मेरी ननिहाल यानी मां के खानदान के हालात बहुत अच्छे हैं, आजादी की पहली लड़ाई (1857 ईसवी) से लेकर इस वक्त तक वो सरकारी ओहदों पर चले आते हैं और लड़ाई के बाद से तो सरकार की नाक के बाल हो गए हैं. मेरी मां के दादा और उनके भाई सब जज और डिप्टी कलेक्टर थे. जब लड़ाई शुरू हुई तो ना उन्होंने मुल्क का साथ दिया और ना नवाब साहब का बल्कि जासूसी का काम किया था. यह मुझे जेल की किताब से मालूम हुआ है और कुछ मैंने सुना, मुझे ये सब लिखते हुए अब शर्म नहीं आती'.

एक जगह वो लिखते हैं कि मुझे जमान-ए-तालिबे इल्म अपने चंद दोस्तों से हमेशा ही जिल्लत उठानी पड़ी, जब वे कहते थे कि तुम खानयीने-वतन (वतन के गद्दार) की औलाद हो’. यूं भी ये तो मां का खानदान था, उनके पिता तो भी अंग्रेजी सरकार की मुलाजमत में रहे थे. ऐसे में कहीं ना कहीं दोस्तों के तानों का असर अशफाक पर पड़ता होगा. तभी तो वो अपने बड़े भाई रियासत की क्लास में पढ़ने वाले पंडित राम प्रसाद बिस्मिल से दोस्ती के उतावले रहे, रामप्रसाद बिस्मिल ने तो धर्मांतरित होने वाले मुस्लिमों की वापस हिंदू धर्म में घर वापसी का आंदोलन भी चला रखा था. इसके बावजूद उनकी दोस्ती सबसे गहरी थी.

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